देश के सामाजिक न्याय मंत्री थावर चंद गहलोत का बयान पढ़ने का सौभाग्य हासिल हुआ. कहते हैं, ‘गौ रक्षक दल सामाजिक संस्थाएं हैं.’ बात यहाँ ख़त्म नहीं होती. वो ये भी कहते हैं कि कोई भी ‘कार्रवाई’ करने से पहले उन्हें अफवाहों की पुष्टि कर लेनी चाहिए. मान्यवर, आप किस ‘कार्रवाई’ की बात कर रहे हैं और ये कार्रवाई करने का हक़ इन तथाकथित सामाजिक संस्थाओं को किसने दिया? क्या आपको आभास है कि ये बयान किस तरह का सन्देश दे रहा है? क्योंकि कार्रवाई के नाम पे मुझे सलमा और शमीम की बेरहम पिटाई दिखाई देती है. कार्रवाई के नाम पे मुझे इन सामाजिक संस्थायों की करनी के तौर पर उन चार दलितों का चेहरा दिखाई देता है, जिन्हें गौ रक्षा के नाम पे ज़लील और लहूलुहान किया गया था. और इस कार्रवाई के नाम पे मुझे अखलाक का चेहरा दिखाई देता है, जिसे गौ रक्षा के नाम पे मौत के घाट उतार दिया गया था. थावरचंद आगे कहते हैं, ‘आजकल किसी भी संवेदनशील मुद्दे पे अफवाहें फैला दी जाती हैं और लोग बगैर सुबूत के प्रतिक्रिया दे देते हैं ‘. मान्यवर, आपका बयान ये होना चाहिए था के मुद्दा चाहे जितना भी उग्र हो, चाहे जितना भी उत्तेजक हो, इंसानी जान की कीमत सभी चीज़ों से सर्वोपरी है. किसी भी गौ रक्षक दल को कोई कार्रवाई करने का हक नहीं है. ये हक़ सिर्फ कानून के पास है. मगर अफ़सोस ये कि चाहे दादरी हो या फिर गौ रक्षा के नाम पे कोई और हमला, सत्ताधारी पार्टी के नेताओं ने बार-बार गैर-जिम्मेदाराना बयान दिए हैं, जिससे न सिर्फ माहौल बिगड़ा है बल्कि आपकी नज़रों में इंसानी जान की क्या कीमत है, वो भी सामने आई है. सबसे दुखद है इस सोच के समर्थक लोगों के बयान. जब दादरी में मांस को लेकर मथुरा प्रयोगशाला की रिपोर्ट सामने आई, तब कई लोगों को मैंने ताना मारते देखा. कहा गया, ‘अब कहाँ छुपे हो, सामने तो आओ. अब कैसे मुंह दिखाओगे? अब तो साबित हो गया के वो गौ मांस था? अब भी अखलाक के समर्थन में खड़े हो क्या? अफ़सोस ये है कि इन लोगों में कोई भी दादरी में नहीं था. इन्हें किसी ने प्रत्यक्ष रूप से नहीं भड़काया जैसे दादरी मंदिर के लाउडस्पीकर पर लोगों को संगठित करके, अखलाक के घर पर हमला करवाया गया. अफ़सोस ये कि इनकी नज़रों में इंसानी जान के कोई कीमत नहीं. मगर बात फिर वही. इंसानी जान. क्योंकि जब आप इसकी कीमत नहीं समझते, जब आप आसानी से अपनी नफरत के चलते भड़क जाते हैं, तब अफवाहों को बल मिलता है. तब सलमा और शमीम और उना के वो चार दलित ज़लील होते हैं. लिहाज़ा देश के सामाजिक मंत्री को समझना होगा के उत्तेजना चाहे कोई भी हो, अफवाह चाहे जितनी भी बड़ी हो, तथाकथित सामाजिक संस्थाओं को कानून हाथ में लेने की इजाज़त नहीं दी जा सकती. पिछले कुछ दिनों में एक और दुखद पहलू सामने आया. ये कहा गया कि राहुल गाँधी और केजरीवाल की उना यात्रा के चलते वो दलित फिर अस्पतालों में भर्ती हो गए. राहुल और केजरीवाल सियासतदान हैं, सियासत करेंगे. ये स्वाभाविक है. मगर हम अपनी संवेदना क्यों खोते जा रहे हैं? हम, जो तमाशबीन सरीखे ताली और गाली के अलावा कुछ नहीं जानते. रमेश सर्विया, वश्राम, अशोक और बेचर, इन चारों ने पिछले दो दिनों से या तो खून की उल्टी की है या फिर उनके कान से खून निकला है. इनमें से दो को तो ICU में भरती करवाना पड़ा. अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद, फिर भर्ती होना पड़ा है. वो तस्वीरें आप भूल गए होंगे, मैं नहीं. उन्हें जिस बेरहमी से मारा गया था, इश्वर का शुक्र है वो जिंदा हैं. सोच कर भी सिहरन पैदा होती है. चाहे मंत्री हों या तमाशबीन, इस सोच और वहशत को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता जो अब किसी रोमन थिएटर में चल रहे खेल जैसा दिखाई देने लगा है. जहाँ हज़ारों की भीड़, मार डालो, मार डालो के नारे लगा रही है. सबसे दुखद इस घटना ने बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को भी दो फाड़ कर दिया है. मुझे और कुछ नहीं कहना. बस यही, कि इंसानी जान की कीमत सबसे ऊपर है और अगर आप उस तथाकथित गुनाहगार को अपनी बात रखने का मौका देंगे, तो कम से कम इन्साफ होगा. घटना को सच्चाई और अफवाह के तराजू पे तोला जा सकेगा. मगर ये तभी संभव है अगर आप उसे जिंदा रहने का मौका देंगे. क्योंकि आपके ‘गुनाहगार’ को भी जीने का हक है.
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